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हम यहाँ हिंदी भाषा विज्ञान के एक महत्वपूर्ण ग्रंथ का परिचय दे रहे हैं. पुस्तक है-
हिंदी पदविज्ञान प्रो. चतुर्भुज सहाय, कुमार प्रकाशन, आगरा, 2007, रु. 400
आम तौर पर विद्वान भाषा के वर्णन के संदर्भ में सिर्फ़ वाक्यविज्ञान की बात करते हैं और वाक्य की रचना की विशेषताओं की व्याख्या करते हैं. फिर सहाय को पदविज्ञान पर लिखने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? पुस्तक के आमुख में लेखक ख़ुद कहते हैं – “जो वाक्य व्यवहार में भाषा प्रयोक्ता द्वारा स्वीकार होते हैं, वैयाकरण उन वाक्यों का वर्णन करता है. किसी वाक्य को व्याकरणसम्मत या व्याकरणविरुद्ध ठहराना उसका काम नहीं है, किंतु पदों में व्याकरण का विश्लेषण करने में वैयाकरण स्वतंत्र होता है. ... इसलिए वैयाकरण को पदकार भी कहा गया है, किंतु वह वाक्यकार कभी नहीं है. पदों से चलकर हम वाक्यार्थ तथा वाक्योच्चारण तक पहुँचते हैं. पदविभाग, पदों की रुपसिद्धि एवं उनके प्रयोगों का वर्णन इस पुस्तक का मुख्य विषय है. ... व्याकरण में पद के इस महत्त्व को देखकर ही एक पाश्चात्य भाषाविद् ने कहा है कि किसी भाषा के पदविभाग को ठीक-ठीक हृदयंगम करने कार्थ है उस भाषा का पूर्ण ज्ञान.” .
पदविज्ञान के संदर्भ में सहाय ने जो बात कही है, उससे सहमत होते हुए मैं उसे अपने ढंग से प्रस्तुत करना चाहूँगा. वाक्य के प्रकार सीमित हैं और प्रमुख रचनाओं के सामान्य विश्लेषण से हम वाक्य में किये जानेवाले सारे विस्तार तक नहीं पहुँच सकते. वास्तव में सामान्य भाषाविज्ञान सामान्य वाक्य संरचनाओं से आगे बढ़ ही नहीं पाते. वाक्य का पदबंध स्तर पर विस्तार अत्यंत गहन विषय है और वाक्य को दीर्घतर बनाता है. आधुनिक भाषाविज्ञान का प्रमुख ध्येय इस विस्तार की गहराई में गोता लगाना ही है. सही मायने में आज हिंदी में इस विस्तार में पैठने वाले ग्रंथ हैं ही नहीं. सहाय ने इस अनछुए पक्ष को अपने अध्ययन का क्षेत्र बनाया, इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं.
वाक्यविन्यास के संदर्भ में पद और पदबंध में भी अंतर करने की भी आवश्यकता है. अंग्रेज़ी में पद की संकल्पना नहीं है, अतः वैयाकरण केवल पदबंध की ही चर्चा करते हैं. लेखक ने पद और पदबंध के अंतर को ध्यान में रखते हुए केवल पदों की व्याख्या करने का लक्ष्य सामने रखा है. संज्ञा पदबंध अपने में विशेषणों को भी समाहित करता है. लेखक ने इसे मिश्र संज्ञा पदबंध की संज्ञा दी है. आपका कहना है कि “नाना प्रकार के विशेषण, निर्धारक एवं भेदक शब्द गौण घटकों के रूप में संज्ञा पदबंध की रचना में सम्मिलित होते हैं.” इसी मान्यता के संदर्भ में हर प्रकरण में आपने पहले पदों की चर्चा की, फिर पदबंधों की. संकल्पना की दृष्टि से यह तार्किक है, संगत है; यही समझ में नहीं आया पुस्तक में क्रिया पदबंध की चर्चा या व्याख्या क्यों नहीं है.
प्रस्तुत ग्रंथ में पद के निर्धारण के लिए व्याकरण में सिद्ध संज्ञा, सर्वनाम आदि आठ शब्दवर्गों को आधार बनाया गया है. इनमें पहले पाँच शब्दिक अर्थ वाले कोशीय शब्द हैं, शेष तीन (संबंधकारक, समुच्चयबोधक और संबोधनकारक) का संबंध वाक्य की रचना से है. लेखक ने इनका संक्षिप्त परिचय देकर सूचना दी है कि वे इनपर अपनी आगामी कृति ‘वाक्यविज्ञान’ में विस्तृत चर्चा करेंगे. इस पुस्तक की यही ख़ूबी है कि विद्वान लेखक ने अपने विषय क्षेत्र को सुनिश्चित कर लिया और उसके भीतर पूरी लगन से काम किया. इस तरह कामता प्रसाद गुरु की परंपरा में आपने घटक पदों के क्षेत्र में जो सूझ दिखाई और विस्तृत विवरण प्रस्तुत किये वह प्रशंसनीय है. एक उदाहरण देना चाहूँगा. ‘भीड़’ एकवचन शब्द होते हुए भी समूहवाचक होने के कारण बहुवचन शब्द जैसा व्यवहार करता है. हम ‘वह आदमी तितर-बितर हो गया’ नहीं कह सकते, लेकिन ‘वह भीड़ तितर-बितर हो गयी’ कह सकते हैं. (पृ. 20) हिंदी के कई विशेषण शब्दों में हमें स्वभाव और मनोभाव में अंतर करने की आवश्यकता है. ‘क्रोध’ स्वभाव की सूचना देता है, अतः हम नाराज़ हो जाने की स्थिति में इस शब्द का उपयोग नहीं कर सकते, ‘क्रुद्ध होना’ का उपयोग करना पड़ेगा. यही कारण है कि नवनिर्मित शब्द ‘क्रोधित’ कोई अर्थ नहीं दे पाता. (देखें पृ. 120) (‘क्रोधित’ का उल्लेख मेरा अपना है)
प्रस्तुत पुस्तक गुरु की परंपरा में है, लेकिन उनके कार्य की प्रतिकृति नहीं है. लेखक ने आधुनिक भाषाविज्ञान की तकनीकों का इस्तेमाल कर विश्लेषण की गुत्थियों को हमारे विचार के लिए छोड़ दिया है. तुलना के परिणामवाचक क्रियाविशेषणों के प्रकरण में आपने ‘से अधिक खाना’ को सही प्रयोग माना, ‘से थोड़ा खाना’ को संदेहास्पद माना (संकेत - ?थोड़ा); “कितना कम है!” को सही माना, “कितना थोड़ा है” को गलत माना (संकेत: *कितना थोड़ा है!) इस तरह पुस्तक के प्रयोजनों का विस्तार हो जाता है और यह पाठकों को शोधपरक दृष्टि देने में सफल हो जाती है.
गठन और प्रस्तुतीकरण की प्रशंसा करने के बावजूद यह आवश्यक नहीं है कि आप चर्चित सभी विषयों से सहमत हों. भाषा की रचना के संदर्भ में हर व्यक्ति की अपनी दृष्टि हो सकती है. यहीं से विचार मंथन शुरू होता है और सिद्धांत निर्माण का सूत्रपात होता है. मैं ऐसे स्थलों की चर्चा करता हूँ जहाँ लेखक से मेरा मतैक्य है तो मतभेद के कुछ स्थलों की भी चर्चा करूँगा.
1967 के आसपास की बात है. केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा में संगोष्ठी थी. संगोष्ठी में उपस्थित मूर्धन्य विद्वानों ने पंचस्थानीय क्रिया रचना की वकालत की. मैं उस समय उम्र में छोटा और भाषाविज्ञान के क्षेत्र में नवागंतुक, फिर भी मैं सबसे भिड़ गया और कहा कि पंचस्थानीय क्रिया व्यवहार में नहीं है. निम्नलिखित क्रियाएँ सहज लगती हैं, लेकिन कॉर्पस में इनके उदाहरण नहीं मिल सकते.
• भेजा जाने लग गया है
• बता दिया जा चुका है
• लिख देना पड़ सकता है
• दे देना पड़ रहा है
सहाय पंचस्थानीय क्रिया ही नहीं, ‘पड़ा रहने दिया जाने लगा है’ जैसी छह स्थान की क्रिया की भी संभावना बताते हैं. अगर गिनीज़ बुक में नाम दर्ज कराना हो तो मैं भी स्थान बढ़ाने की कोशिश कर सकता हूँ. आगे की आठ स्थानीय क्रिया कृत्रिम भी नहीं है – क्या बढ़-चढ़ कर बोले चले जा रहे हो? पंचस्थानीय क्रिया व्यवहार में न होने की मेरी बात संगोष्ठी में उपस्थित विद्वानों ने नहीं मानी, क्योंकि मैं उम्र में छोटा था. लेकिन आज तो मैं आग्रह कर सकता हूँ कि कॉर्पस के आधार पर हम वस्तुस्थिति की जाँच कर निष्कर्ष तक पहुँचें
मतभेद का दूसरा प्रकरण क्रिया रचना से संबंधित है. लेखक ने संयुक्त क्रिया नामक प्रकरण में गुरु के व्याकरण का अनुसरण किया है. आपने 22 संयुक्त क्रियाओं की सूची दी है जिसमें ‘सक’, ‘चुक’ आदि मोडल क्रियाएँ, ‘ले’, ‘दे’, ‘जा’ आदि रंजक क्रियाएँ ‘पड़’ आदि बाध्यता की क्रियाएँ शामिल की हैं. संयुक्त क्रिया के पहले खंड को मुख्य क्रिया और बाद की क्रियाओं को सहायक क्रिया कहा गया है. गुरु ने ‘आना-जाना’ जैसे क्रिया रूपों को पुनरुक्त संयुक्त क्रिया कहा है, जबकि सहाय ने पुनरुक्त क्रिया रूपों की चर्चा नहीं की है. भाषाविज्ञान में अस्तित्वसूचक क्रिया ‘है’ को auxiliary verb कहा जाता है. इसका व्याकरण में बहुत महत्त्व है, क्योंकि इससे सैकड़ों प्रकार के वाक्य बनते हैं. गुरु इसे केवल कालसूचक क्रिया ‘होना’ का रूप मानते हैं. चूँकि वे इसे विस्तृत क्रिया के अंग के रूप में ही देखते हैं, इससे बननेवाले वाक्यों की भी चर्चा नहीं करते. सहाय ‘है’ को “रमा डॉक्टर है” आदि वाक्यों में ‘संयोजक’ मानते हैं. इस तरह ‘है’ का महत्त्व घटने के कारण मूल या मुख्य क्रिया के बाद के धातुज क्रिया रूपों को गुरु सहकारी क्रिया कहते हैं और सहाय उन्हें सहायक क्रिया कहते हैं. हमें अस्तित्वसूचक क्रिया ‘है’ के लिए शब्द की आवश्यकता है; इसे सहायक क्रिया कहें तो हमें परवर्ती धातुज क्रिया रूपों (सक, चुक, लग, पड़, दे, ले आदि) के लिए नाम ढूँढ़ना होगा
‘आ-जा, खा-पी’ आदि रूपों को संयुक्त क्रिया मानने में बड़ी कठिनाई है. ये वास्तव में संयुक्त धातु हैं. अर्थात् एकल धातु ‘जा’ आदि जहाँ भी आए वहाँ संयुक्त धातु आ सकती है. शायद यही कारण है कि सहाय ने संयुक्त धातुओं को संयुक्त क्रिया नहीं माना. फिर बाद की क्रियाओं को प्रकार्यात्मक ढंग से विश्लेषित करने की आवश्यकता होती है. मैंने प्रयोग और प्रयोग में रंजक क्रियाओं को दो भागों में बाँटा – पूर्वज्ञान पर आधारित (ले, दे, जा, डाल) तथा आकस्मिक घटना सूचक (उठ, पड़, बैठ आदि). हम देख सकते हैं कि केवल पूर्वज्ञान पर आधारित रंजक क्रियाएँ आज्ञार्थ में आती हैं. जैसे कर लो, दे दो, तोड़ डालो, बैठ जाओ; *गिर पड़ो, *कर बैठो.
हिंदी पदविज्ञान में सहाय भाषा सागर में गहरे पैठ मोती चुनकर लाये हैं. उदाहरण अधिकतर संदर्भ से लिए हुए हैं, अधिक प्रामाणिक हैं. हम उम्मीद करेंगे कि वे उन्हें अपनी आगामी रचना वाक्यविज्ञान में पिरोकर प्रस्तुत करेंगे तो दृष्टि की बात अधिक स्पष्ट होगी. प्रो. सहाय का ग्रंथ हिंदी भाषाविज्ञान के क्षेत्र में अनूठी उपलब्धि है, पठनीय है और संग्रहणीय है.